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>> Thursday, June 21, 2007


जब भी मैं तुम्हें पा जाती हूँ
आनन्द के सागर में डूब जाती हूँ।
मन्द मन्द मुस्कुराती हूँ ।
और ठहाके भी लगाती हूँ ।
पर ,,,,,,,,,,
उस खुशी को आत्मसात
नहीं कर पाती हूँ ।
चेतना झटका देती है ।
और मुझसे पूछती है -
कहाँ और किस दिशा में
जा रही हूँ ?खुशी की ये कैसी तलब है ?
जिसका हर द्वार दुखों के
गलियारों से होकर
जाता है।
भटकता निराश मन
केवल क्षण भर को ही
चैन पाता है ।
और फिर ---
सवालों में घिर जाता है ।
फिर सवालों में घिर जाता है ।
तुम जिसे पाना चाहते हो ,
वह मेरा लक्ष नहीं है ।
पता नहीं ये भटकन ,
कब तक चलेगी ?
सुक की मृग तृष्णा
कब तक छलेगी ?




सुकुन की तलाश में
बेचैनी क्यों पा रही हूँ ?

3 comments:

Rajesh June 25, 2007 at 1:07 PM  

hamara man bhatakta hua kis disha mein bhag raha hai ye khushi ke waqt mein hame pata hi nahi chalta, jab pata chalta hai aur sochte hai to lagta hai ki yah to apni manzil nahi hai, hame yahan to nahi jana, ise to nahi pana, per jo control mein rahe woh mann thode hi hota hai? khoob hi sunder kalpana hai mann ke baaare mein. aur woh bhi aisa hi hota hai ki jo nahi pana chahiye ya jahan nahi dekhna chahiye ya phir jise nahi paa sakte, usi ke pichhe lag jata hai.
ritu ji ko meri aur se khoob dhanyavad.

शैलेश भारतवासी August 15, 2007 at 5:11 PM  

अगर कभी आपने आचार्य रजनीश को पढ़ा हो तो उन्होंने इस तरह की अतुकांत कविताएँ खूब लिखी हैं जिसमें सुख की विनाशतता का संप्रेषण है, और वो बहुत सुंदर और दार्शनिक भी हैं, मन को लुभाती हैं। दृष्टिकोण अगर आपका सांसारिक दुःखों की अविनाशतता ही है, तो इस रचना में आकर्षित करने की क्षमता नहीं है।

आशीष "अंशुमाली" September 11, 2007 at 5:39 PM  

तुम जिसे पाना चाहते हो ,
वह मेरा लक्ष नहीं है ।
पता नहीं ये भटकन ,
कब तक चलेगी ?
सुक की मृग तृष्णा
कब तक छलेगी ?
सुकुन की तलाश में
बेचैनी क्यों....
प्रश्‍नों की आकुलता श्रेयस्‍करी है।

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