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एक पाती नेह की

>> Sunday, March 2, 2008


दिल की कलम से
लिखती हूँ रोज़
एक पाती नेह की
और तुम्हें बुलाती हूँ



पर तुम नहीं आते
शायद वो पाती
तुम तक जाती ही नहीं


दिल की पाती है ना-
नाजाने कितनी बार
द्वार खटखटाती होगी
तुम्हें व्यस्त पाकर
बेचारी द्वार से ही
लौट आती होगी


तुम्हारी व्यस्तता
विमुखता लगती है
और झुँझलाहट
उस पर उतरती है


इसको चीरती हूँ
फाड़ती हूँ
टुकड़े-टुकड़े
कर डालती हूँ


मन की कातरता
सशक्त होती है
बेबस होकर
तड़फड़ाती है


और निरूपाय हो
कलम उठाती है
भावों में भरकर
पाती लिख जाती है


ओ निष्ठुर !
कोई पाती तो पढ़ो
मन की आँखों से
देखो----


तुम्हारे द्वार पर
एक ऊँचा पर्वत
उग आया है
मेरी पातियों का


ये पर्वत--
बढ़ता ही जाएगा
और किसी दिन
इसके सामने
तुम्हारा अहम्
बहुत छोटा हो जाएगा


8 comments:

Anonymous March 2, 2008 at 5:05 PM  

बहुत सुन्दर... कविता!

Unknown March 2, 2008 at 5:21 PM  

its just beautiful,full of emotions.

Udan Tashtari March 2, 2008 at 6:30 PM  

उम्दा रचना, बधाई.

अजय कुमार झा March 3, 2008 at 12:05 PM  

aapkee pati ne kaahee prabhavit kiya. aaj pehlee baar padhaa aapko. aage ye kram chaltaa rahegaa. dhanyavaad.

शोभा March 3, 2008 at 4:06 PM  

सभी पाठकों का हृदय से धन्यवाद । बस यही अनुरोध है कि इसीप्रकार उत्साह बढ़ाते रहें ।

Rajesh March 4, 2008 at 5:58 PM  

Sachmuch Sbobhaji, aajkal logon mein vyastata itni badh gayi hai, kisi ko kisi ki parwah hi nahi. Aur yah paati ki baat karti hai aap, ab is computer age mein aapki paati ka yahi haal hona hai, bada sa parbat ban jana hai, kisi ke dwar per lekin haan itna bada parbat jaroor uske aham se bada hi sabit hoga....
Very nice, emotional poem

शोभा March 4, 2008 at 9:02 PM  

राजेश जी
आपकी पठनीयता को प्रणाम । आप जैसे पाठक ही लेखन की वास्तविक प्रेरणा होते हैं । बस इसी तरह उत्साह बढ़ाते रहिए । सस्नेह

आशीष "अंशुमाली" March 12, 2008 at 4:06 PM  

तुम्हारे द्वार पर
एक ऊँचा पर्वत
उग आया है
मेरी पातियों का



ये पर्वत--
बढ़ता ही जाएगा
और किसी दिन
इसके सामने
तुम्हारा अहम्
बहुत छोटा हो जाएगा
....यहां कविता हो गयी...शोभा जी। पसन्‍द आयी रचना।

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