बैसाखी पर…..
>> Saturday, April 12, 2008
स्वर्णिम आभा बिखराई है
जिसे देख हर दिल ने
दुन्दुभि बजाई है
पाँवों में थिरकन और
ओठों पर गीत आया है
झूमते दिलों में मस्ती का
सागर लहराया है
बैसाखी के रंग, ढ़ोल और मृदंग
के बीच अचानक…….
कुछ यादें स्मृति पटल पर
दस्तक देने लगती हैं
ये छवि धुँधली हो जाती है
और …….
कानों में संगीत की जगह
चीख पुकारें गूँजने लगी
खुशियों के स्थान पर मातम
भागते चीखते लोगों का चीत्कार
खून से लथपथ बच्चों को उठाए
रोती बिलखती तड़पती ललनाएँ
और पौरूष बेबस निरूपाय …
बन्द द्वार पर खड़े
गोलियाँ बरसाते नर पशु
ओह !
ये दृष्य हृधयविदारक हैं
इनकी कल्पना
हृदय को चीर-चीर कर जाती है
नाचते गाते लोगों की छवि
फिर उभर आती है
इतिहास के ये पन्ने
कुछ कहने ख्वाइश में
खुलते ही जा रहे हैं
और भारत के लोगों को
आज़ादी की कीमत
समझा रहे हैं
2 comments:
baisakhi par itni khusurat kavita,man jhum utha,bahut sundar.
baisakhi ke saath juda itihaas jaan ne mila aap ki is kavita se... Padh kar mann chitkaar karne laga.
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