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माँ तुम……

>> Wednesday, April 16, 2008




माँ तुम……
बहुत याद आ रही हो
एक बात बताऊँ………
आजकल…..
तुम मुझमें समाती जा रही हो


आइने में अक्सर
तुम्हारा अक्स उभर आता है
और कानों में अतीत की
हर एक बात दोहराता है


तुम मुझमें हो या मैं तुममें
समझ नहीं पाती हूँ
पर स्वयं
को आज
तुम्हारे स्थान पर खड़ा पाती हूँ


तुम्हारी जिस-जिस बात पर
घन्टों हँसा करती थी
कभी नाराज़ होती थी

झगड़ा भी किया करती थी


वही सब……
अब स्वयं करने लगी हूँ
अन्तर केवल इतना है कि
तब वक्ता थी और आज
श्रोता बन गई हूँ


हर पल हमारी राह देखती
तुम्हारी आँखें
……..
आज मेरी आँखों मे बदल गई हैं
तुम्हारे दर्द को
आज समझ पाती हूँ
जब तुम्हारी ही तरह
स्वयं को उपेक्षित
सा पाती हूँ


मन करता है मेरा
फिर से अतीत को लौटाऊँ
तुम्हारे पास आकर
तुमको खूब लाड़ लड़ाऊँ
आज तुम बेटी
और मैं माँ बन जाऊँ


तुम्हारी हर पीड़ा, हर टीस पर
मरहम मैं बन जाउँ
तुम कितनी अच्छी हो
कितनी प्यारी हो
ये सारी दुनिया को बताऊँ


पर जानती हूँ माँ !
वो वक्त कभी नहीं आएगा
इतिहास स्वयं को
यूँ ही दोहराएगा


तुमने किसी को दोषी नहीं ठहराया
मैं भी नहीं ठहराऊँगी
किसी पर अधिकार नहीं जताया
मैं भी नहीं जताऊँगी
तभी तो तुम्हारे ऋण से

उऋण हो पाऊँगी



6 comments:

Anonymous April 19, 2008 at 7:31 AM  

yeh saraahanaa nahiin mera hridya hai jo aapke is kaavy par nichhaawar ho gaya..

Udan Tashtari April 19, 2008 at 8:05 PM  

तभी तो तुम्हारे ऋण से
उऋण हो पाऊँगी

???

माँ के ऋण से उऋण - क्या यह कभी संभव है??

शायद कभी नहीं!!

राज भाटिय़ा April 20, 2008 at 11:41 AM  

बहुत खुब,शोभा जी सिर्फ़ एक कर्ज हे मां का जो कभी भी नही चुकाया जा सकता,
ओर आप की कविता ने फ़िर से आप की कलम को चमका दिया.

Rajesh April 22, 2008 at 11:29 AM  

Shobhaji, this has become a great article on "MAA". kitne saral shabdon mein aapne hamesha ki hi tarah kitna kuchh kah diya hai. Aur haan life cycle ki yahi khoobi hai ki aage wale ki jagah jab hum khood pahonchte hai, tabhi oon aage walon ke dard ko mahsoos kar pate hai aur fir unhi ka rona rote hai apne shabdon mein. And yes, Maa ka roon kabhi bhi koi bhi nahi chuka pata, chahe wah beti hi ho aur khood Maa bankar apni Maa ko beti bana kar dularna chahe to bhi nahi........

डॉ .अनुराग April 25, 2008 at 7:51 PM  

माँ का कर्ज सिर्फ़ उनकी सेवा ओर अपने बच्चो को एक अच्छा इन्सान बनाके ही चुकाया जा सकता है.

Ila's world, in and out April 26, 2008 at 9:26 AM  

शोभाजी, आपकी कविता ने बरबस ही आंखों में आंसू ला दिये.यूं तो मां,हर पल हर क्षण अवचेतन में साथ ही होती है,उनको देखने की ,लाड लडाने की इच्छा बलवती हो चली है.

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