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प्रकाश की खोज

>> Friday, May 30, 2008






मैं एक अजर-अमर

शुद्ध स्वरूप आत्मा हूँ

शान्ति मेरा स्वभाव

और प्रकाश मेरा स्वरूप है

इसी कारण ….

सदा-सर्वदा

प्रकाश की ओर अग्रसर हूँ

जब भी,जहाँ भी

प्रकाश की कोई किरण

पाती    हूँ

उसी ओर बढ़  जाती हूँ

किन्तु पास जाने पर

प्रकाश नहीं धोखा निकलता है

एक ऐसा धोखा……

जो आँखों को चौंधियाता है

किन्तु रौशनी नहीं देता

सत्य तो दिखाता है

किन्तु नग्न सत्य

जिसे देख आँखें शान्ति नहीं पाती

जलने लगती हैं…..

हृदय  और अधिक उद्वेलित

और आवेशित हो जाता है

शान्ति की तलाश में

अशान्ति ही पाता है….

आज तक…..

प्रकाश ने सर्वदा

आँखें ही चौंधियाई हैं

जीवन की पूँजी बस

यूँ ही गँवाई है

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प्रेमी बादल

>> Monday, May 26, 2008


देखो आकाश में

घना अँधेरा छाया है ।

लगता है कोई प्रेमी

बादल बन आया है

इसके मन भावन रूप पर

धरती मोहित हो जाएगी ।

प्रेम की प्यासी अपना

आँचल फैलाएगी ।

और अमृत की वर्षा में

आकंठ डूब जाएगी ।

ऑंखों में रंग और

ओठों पे मधुर गीत

आया है ।

लगता है कोई प्रेमी

बादल बन आया है ।

गर्मी की तपन

अब शान्त हो जाएगी ।

सूखी सी धरती पर

कलियाँ खिल जाएँगी ।

हर तरफ अब बस

हरियाली ही छाएगी ।

गर्मी से सबको ही

राहत मिल जाएगी ।

झूलों में बैठ कर

गीत याद आया है ।

लगता है कोई प्रेमी

बादल बन आया है ।

धरती की प्रतीक्षा

रंग ले आई है ।

मदमदाती आँखों में

प्रेम छवि छाई है ।

अंग- अंग में यौवन की

मदिरा छलक आई है ।

नव अंकुरित सृष्टि ने

नयनों को लुभाया है ।

लगता है कोई प्रेमी

बादल बन आया है ।

बादल और प्रेमी

आते और जाते हैं ।

संवेदनाओं के मधुर

फूल खिला जाते हैं ।

कभी यहाँ, कभी वहाँ

अलख जगाते हैं ।

नारी को केवल

सपने दे जाते हैं ।

प्रेम में मत पूछो

किसने क्या पाया है ।

लगता है कोई प्रेमी

बादल बन आया है ।


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एक मधुर गीत- नैना ठग लेंगें

>> Sunday, May 25, 2008

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कभी-कभी

>> Tuesday, May 20, 2008


कभी-कभी सब कुछ

अच्छा क्यों लगने लगता है ?

बिना कारण कोई

सच्चा क्यों लगने लगता है ?

क्यों लगता है कि

कुछ मिल गया ?

अँधेरे में जैसे चिराग जल गया ?

हवाओं की छुवन

इतनी मधुर क्यों लगने लगती है ?

पक्षी की चहचहाहट

क्यों मन हरने लगती है ?

मन के आकाश में

रंग कहाँ से आ जाते हैं ?

किसी के अंदाज़

क्यों इतना भा जाते हैं ?

भीनी-भीनी खुशबू

कहाँ से आजाती है ?

और चुपके से

हर ओर बिखर जाती है ?

ना जाने कौन

कानों में चुपके से

कुछ कह जाता है ।

जिसे सुनकर-

मेरा रोम-रोम

मुसकुराता है ।

 

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काश!

>> Friday, May 16, 2008


काश!
मैं बन जाऊँ एक सुगन्ध
जो सबको महका दे
सारी दुर्गन्ध उड़ा दे
या

बन जाऊँ एक गीत
जिसे सब गुनगुनाएँ
हर दिल को भा जाए

अथवा
बन जाऊँ नीर
सबकी प्यास बुझाऊँ
सबको जीवन दे आऊँ

या फिर..
बन जाऊँ एक आशा
दूर कर दूँ निराशा
हर दिल की उम्मीद

अथवा
बन जाऊँ एक बयार
जो सबको ताज़गी दे
जीवन की उमंग दे
नव जीवन संबल बने
तनाव ग्रस्त
..
प्राणी की पीड़ा पर
मैं स्नेह लेप बन जाऊँ

जग भर की सारी
चिन्ताएँ मिटा दूँ
जी चाहता है आज
निस्सीम हो जाऊँ
एक छाया बन
नील गगन में छा जाऊँ


सारी सृष्टि पर अपनी
ममता लुटाऊँ

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"माँ"

>> Saturday, May 10, 2008


"माँ"
एक प्यारा सा शब्द
एक मीठा सा रिश्ता
प्रेम उदधि
त्याग की मूरत

बलिदान रूप
ईश्वरीय शक्ति

आँचल में समेटे
ममता का सागर

दो प्यारी सी आँखें
ममता से लबालब
राहों में बिछी
देखती हैं सपने

दो कोमल सी बाँहें
सदा संरक्षण को आतुर
एक सच्चा सम्बल

एक शक्ति और एक आस

जीवन में भर देती
सदा विश्वास........

आज के दिन दूँ क्या
तुमको उपहार
मस्तक झुकाती हूँ
सहित आभार

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मैं नास्तिक नहीं हूँ

>> Wednesday, May 7, 2008


मैं नास्तिक नहीं हूँ

भगवान!

तुम्हारे अस्तित्व को भी

मैने कभी नहीं नकारा

फिर भी……

दुनिया के प्रति तुम्हारी उपेक्षा

मेरा विश्वास डिगा देती है

देखती हूँ जब भी

किसी दुर्बल को हारता

तुम्हारी शक्ति गाथा

एकदम खोखली लगती है

जब भी पढती हूँ

शील हरण की बात

द्रोपदी की लाज लुटती सी

नज़र आती है

उस युग की संवेदनाएँ

इस युग में कहाँ लुप्त हो गई?

तुम्हारी भक्त वत्सलता

किस कोनो में जा सो गई ?

है कोई उत्तर……

बोलो मेरे भगवान!

कैसे बचेगी आस्था

कैसे टिकेगा विश्वास

यदि मूक हो जाओगे तुम

किसको पुकारेंगें प्राण ?

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तुम कहो मैं सुनूँ---

>> Monday, May 5, 2008




तुम कहो मैं सुनूँ
मैं कहूँ तुम सुनो
ज़िन्दगी प्यार से यूँ गुज़रती रहे


जब भी हारी थी मैं
तुमने सम्बल दिया
जब गिरे थक के तुम
मेरा आश्रय लिया
हम अधूरे बहुत
एक दूजे के बिन
दिल की बातें यूँ ही दिल समझते रहें
ज़िन्दगी प्यार से यूँ गुज़रती रहे

तुम हुए मेंहरबाँ
झोली सुःख से भरी
मैने चुन-चुन सुमन
प्रेम बगिया भरी
अब ना सोचो किसे
पीर कितनी मिली
हर घड़ी दुःख की गागर
छलकती रहे

ज़िन्दगी प्यार से------


तुम ना रोको मुझे
मैं ना टोकूँ तुम्हें
दोनो मिलकर चलें
एक दूजे के संग
दिन महकता रहे
रात ढ़लती रहे
ज़िन्दगी प्यार की
धुन पे चलती रहे--

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एक पाती नेह की.....

>> Friday, May 2, 2008


दिल की कलम से
लिखती हूँ रोज़
एक पाती नेह की
और तुम्हें बुलाती हूँ

पर तुम नहीं आते
शायद वो पाती
तुम तक जाती ही नहीं
दिल की पाती है ना-

नाजाने कितनी बार
द्वार खटखटाती होगी
तुम्हें व्यस्त पाकर
बेचारी द्वार से ही
लौट आती होगी

तुम्हारी व्यस्तता
विमुखता लगती है
और झुँझलाहट
उस पर उतरती है

इसको चीरती हूँ
फाड़ती हूँ
टुकड़े-टुकड़े
कर डालती हूँ

मन की कातरता
सशक्त होती है
बेबस होकर
तड़फड़ाती है

और निरूपाय हो
कलम उठाती है
भावों में भरकर
पाती लिख जाती है

ओ निष्ठुर !
कोई पाती तो पढ़ो
मन की आँखों से
देखो----
तुम्हारे द्वार पर
एक ऊँचा पर्वत
उग आया है

मेरी पातियों का
ये पर्वत--
बढ़ता ही जाएगा
और किसी दिन
इसके सामने
तुम्हारा अहम्
बहुत छोटा हो जाएगा


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