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एक पाती नेह की.....

>> Friday, May 2, 2008


दिल की कलम से
लिखती हूँ रोज़
एक पाती नेह की
और तुम्हें बुलाती हूँ

पर तुम नहीं आते
शायद वो पाती
तुम तक जाती ही नहीं
दिल की पाती है ना-

नाजाने कितनी बार
द्वार खटखटाती होगी
तुम्हें व्यस्त पाकर
बेचारी द्वार से ही
लौट आती होगी

तुम्हारी व्यस्तता
विमुखता लगती है
और झुँझलाहट
उस पर उतरती है

इसको चीरती हूँ
फाड़ती हूँ
टुकड़े-टुकड़े
कर डालती हूँ

मन की कातरता
सशक्त होती है
बेबस होकर
तड़फड़ाती है

और निरूपाय हो
कलम उठाती है
भावों में भरकर
पाती लिख जाती है

ओ निष्ठुर !
कोई पाती तो पढ़ो
मन की आँखों से
देखो----
तुम्हारे द्वार पर
एक ऊँचा पर्वत
उग आया है

मेरी पातियों का
ये पर्वत--
बढ़ता ही जाएगा
और किसी दिन
इसके सामने
तुम्हारा अहम्
बहुत छोटा हो जाएगा


7 comments:

डॉ .अनुराग May 2, 2008 at 8:19 PM  

नाजाने कितनी बार
द्वार खटखटाती होगी
तुम्हें व्यस्त पाकर
बेचारी द्वार से ही
लौट आती होगी
bahut sundar....

अमिताभ मीत May 2, 2008 at 8:58 PM  

बहुत सुंदर. वाह !

Anonymous May 2, 2008 at 9:12 PM  

poem is very nice
on lighter note shobha
dont write to that person again who does not respond to your first letter
!!!!!!!!!!

Udan Tashtari May 2, 2008 at 10:57 PM  

बहुत खूब-बेहतरीन!

आशीष "अंशुमाली" May 3, 2008 at 4:13 PM  

मेरी पातियों का
ये पर्वत--
बढ़ता ही जाएगा
और किसी दिन
इसके सामने
तुम्हारा अहम्
बहुत छोटा हो जाएगा
prabhavshali abhivyakti..

राज भाटिय़ा May 4, 2008 at 6:03 PM  

वाह कया भाव हे एक दिन...तुम्हारा अहम..
सच मे प्यार की ही जीत होती हे, धन्यवाद

Rajesh May 9, 2008 at 12:08 PM  

Aaj kal ke vyast jeevan ka karan hai kuchh aur, jiske karan vash aapki yah paati bina uttar ke hi rah jati hai.....
Aap ne jo soch batayi hai...
"मेरी पातियों का
ये पर्वत--
बढ़ता ही जाएगा
और किसी दिन
इसके सामने
तुम्हारा अहम्
बहुत छोटा हो जाएगा"
Its a beautiful, bahot hi unchi soch hai yah... Dhanyavaad

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