मेरे अनुभव को अपनी प्रतिक्रिया से सजाएँ

ये क्या हुआ…….

>> Sunday, June 29, 2008


मेरी एक झलक पर

बाग-बाग होने वाले

मेरे प्यारे पिता !

तुम इतना क्यों बदल गए?

मुझे भरपूर प्यार और

आराम देने वाले तुम..

हाँ तुम ही तो थे

मेरी एक-एक पीड़ा पर

तुम्हारी आँखों से

आँसुओं का सागर

बह जाता था

उन दूधिया वात्सल्य

भरी आँखों में आज

आक्रोष क्यों आगया ?

तुम्हारी अँगुली पकड़कर

बचपन में चलना सीखा

तुम्हारी स्नेहिल छाया में

सदा स्वयं को सुरक्षित पाया

मेरा एक मात्र सहारा

बस तुम ही तो थे

माँ से भी बस मेरा

भूख का ही नाता था

पर तुमसे तो मेरा रिश्ता

अभिन्न और अटूट था

और तुम भी

हाँ तुम भी मेरे लिए

सदा,सर्वदा प्रस्तुत रहे

फिर आज ये क्या हो गया?

मेरे पिता तुम

मेरे रक्षक से

मेरे घातक कैसे हो गए ?

Read more...

कभी-कभी ......

>> Wednesday, June 25, 2008

कभी-कभी हम सब
साथ रहते हुए भी -
कितने अज़नबी हो जाते हैं ?
एक दूसरे की व्यथा, वेदना,पीड़ा,
समझ ही नहीं पाते हैं ?
वैसे हम सगे हैं और अपने भी-
फिर भी -
एक दूसरे को
तनाव, चुभन व दर्द
ही क्यों दे जाते हैं ?
ये सच है कि-
दिल में प्रधान प्रेम ही है-
फिर भी ------
उपेक्षित और असुरक्षित
क्यों हो जाते हैं ?
एक दूसरे को समझना
क्या इतना कठिन काम है ?
फिर जन्मों का बन्धन-
क्यों ठहराते हैं ?
कहीं अनेक जन्मों से-
उलझते तो नहीं जा रहे हैं ?
करीब आने की धुन में-
दूर तो नहीं जा रहे हैं ?
ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं -
जिनके उत्तर कभी नहीं मिलते ।
इसीलिए दिल के ऑंगन में-
सुरभित- सुन्दर फूल नहीं खिलते ।

Read more...

एक पिता

>> Sunday, June 8, 2008

मैंने देखा एक पिता
एक नन्ही बालिका की
मधुर मुस्कान पर
सुध-बुध भूला पिता……
.आँखों से छलकतीस्नेह की गागर
लबालब वात्सल्य छलकाती थी
और बालिका एक किलकारी
अतुल्य दौलत दे जाती थी
क्रूर, कठोर, निर्दय जैसे विशेषण
दयालु, कोमल और बलिदानीमें
ढल गए....
बेटी को देख……
सारे हाव-भाव बदल गए
क्या यह वही पुरूष है
जिसे नारी शोषक और
अत्याचारी समझती है ?
ना ना ना .......
ये तो एक पिता है
जो बेटी को पाकर
निहाल हो गया है
ममता की यह बरसात
जब और आवेग पाती है
पत्नी से भी अधिक प्रेम
बेटी पा जाती है
प्रेम की दौलत बस
बेटी पर बरस जाती है
और प्रेम की अधिकारिणी
प्रेम से वंचित रह जाती है
प्रेमान्ध पिताघरोंदे बनाता है
अपने सारे सपने
बेटी में ही पाता है
पर बेटी के ब्याह पर
बिल्कुल अकेला रह जाता है
पिता और पुत्री का
एक अनोखा ही नाता है

Read more...

अनेकता में एकता

>> Wednesday, June 4, 2008


अनेकता में एकता

 मेरे भारत की विशेषता

  यही पाठ पढ़ा-

और यही पढ़ाया

किन्तु प्रत्यक्ष में

 एकता का

कहीं दर्शन ना पाया

 

भी धर्म के नाम पर

खुले आम घर जले

 मन्दिर मस्ज़िद टूटे

 

 

 लाखों बर्बाद हो गए

, फिर भी हमने…….

धर्म निरपेक्षिता की

डींगे हाँकी….

 

 

प्रान्तीयता के आधार पर

देश के सर्वोच्च पद का निर्धारण

 राष्ट्रीयता के हृदय पर

एक बड़ा आघात

और सारा देश चुप…..

पद का सही उम्मीदवार

अपमान सह गया

और राष्ट्र मूक रह गया

 

 

और आज फिर..

एक ओर……..

प्रान्तीयता की आवाज़

कानों में शीषा डाल रही है

देश के हर नागरिक को

किंकर्तव्य विमूढ़ बना रही है

आशा की किरणें बहुत

क्षीण होती जा रही हैं

और हम गर्व से

राष्ट्रीयता का…..

 राग आलाप रहे हैं

डींगें हाँक रहे हैं


दूसरी ओर……

आरक्षण का राक्षस

अपनी बाँहें फैला रहा है

और सारा देश विवशता से

कैद में कसमसा रहा है

यह आरक्षण की माँग है या

सुरसा का मुँह

जो निरन्तर बढ़ता ही जारहा है

कोई भी आश्वासन

काम नहीं आरहा है।

 

 

भारत माता शर्मिन्दा है

अपनी सन्तान के

 कुकृत्यों पर

उसका अंग-अंग

पीड़ा से कराह रहा है

ना जाने कौन ये

जहर फैला रहा है

कोई भी उपाय

काम नहीं आ रहा है

 

 

 

मेरे देश की आशाओं

देश को यूँ ना जलाओ

माँ के घावों पर

थोड़ा सा मरहम भी लगाओ

 हम एक हैं

फिर से  ये प्रतिग्या दोहराओ

दे दो विश्वास जो

खोता जा रहा है

 

देश के हर कोने से

यही आग्रह और

यही स्वर आरहा है

 

Read more...

  © Blogger template Shiny by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP