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कुछ प्रश्न

>> Sunday, July 13, 2008




कुछ प्रश्न उठ रहे हैं
मेरे ज़हन में--
उत्तर दोगे?
सच-सच
तुम्हारी दृष्टि में
प्रेम क्या है
किसी से जुड़ जाना
या उसे पा लेना
वैसे पाना भी एक प्रश्न है
उसके भी कई अर्थ हैं
कैसे पाना--
शरीर से- या मन से
यदि शरीर से--
तो एक दूसरे को पाकर भी
परिवार पूर्ण क्यों नहीं हो पाते-
यदि मन से--
तो सारा आडम्बर क्यों -
इन चिरमिराते साधनों से
तुम किसे जीतना चाहते हो-
उस मन को-
जो स्वछन्दता भोगी है
या उस तन को
जो भुक्तभोगी है ?
सोचो तुम्हारा
गंतव्य क्या है ?
ये व्याकुलता
ये तड़प -
किसके लिए है ?
यदि कुछ पाना ही नहीं
तो मिलें क्यों ?
सब कुछ तो मिल रहा है
सामीप्य,संवेदना

साहचर्य और प्रेम भी
फिर क्या अप्राप्य है?
क्यों बेचैन हो?


मैं तो सन्तुष्ट हूँ
जो मिल रहा है
उससे पूर्ण सन्तुष्ट
हाँ कुछ इच्छाएँ जगती हैं
किन्तु मैं इन्हें
महत्व नहीं देती
मेरी दृष्टि में
ये मूल्यहीन हैं
मेरा प्राप्य
आत्मिक सुख है
मैं उस सीमा पर
पहुँचना चाहती हूँ
जिसके आगे मार्ग
समाप्त हो जाता है
मेरी आक्षाएँ असीम हैं
बोलो चलोगे ?
दोगे मेरा साथ ?

7 comments:

Anonymous July 13, 2008 at 10:10 PM  

प्रेम का अर्थ हैं केवल देना
प्रेम मे अगर माँगा तो प्रेम ही नहीं किया
आत्मिक सुख मे भी जब आप की मांग साथ की हैं तो आप सुख की परिभाषा से बहुत दूर हैं . कभी किसी को प्रेम सिर्फ़ प्रेम के लिये कर के देखे , अपनी सुख के नहीं उसके सुख की कामना करके देखे , आत्मिक सुख आप को खोजना नहीं पडेगा जिन्दगी मे जो संतुष्ट हैं वह सबसे भ्रमित हैं क्योकि उसको लगता हैं की बाकि सब अदुरे सिर्फ़ वही पूरा हैं अब गर आप पुरी हैं तो आप को किसी का भी साथ क्यों चाहेए
अनुतरित प्रश्नों के उतर दे कर स्नेह फेलाए

रंजू भाटिया July 13, 2008 at 10:34 PM  

मन में उठते हुए मनोभावों की सुंदर कविता है यह ...जवाब अधूरे से हैं कुछ इसके ..

अबरार अहमद July 13, 2008 at 10:59 PM  

मैं उस सीमा पर
पहुँचना चाहती हूँ
जिसके आगे मार्ग
समाप्त हो जाता है
मेरी आक्षाएँ असीम हैं
बोलो चलोगे ?
दोगे मेरा साथ ?


बहुत बढिया।

राज भाटिय़ा July 13, 2008 at 11:57 PM  

शोभा जी मे रचना जी की बात से सहमत हु, सच्चा प्यार कभी मांगता नही, सिर्फ़ देना ही जानता हे,जेसे मां ,बाप सारी उमर बच्चो के लिये जीते हे,बस बिना स्बार्थ सब कुछ बच्चो पर नोछाबर करते हे,लेकिन आज प्यार सिर्फ़ पाने को माना जाता हे, प्यार कभी हक नही जताता,प्यार बस प्यार हे जो हम किसी से भी कर सकते हे, भगवान से,मां से, पत्नी से, बच्चो से, आप से ओर प्यार जिस ने किया उसे पुजा की भी जरुरत नही,लेकिन यह फ़िल्मी प्यार नही...

नीरज गोस्वामी July 14, 2008 at 5:34 PM  

यक्ष प्रश्न उठायें हैं आपने...बिना देह के प्रेम नहीं....लेकिन सिर्फ़ देह से प्रेम प्रेम नहीं कहलाता...प्रेम में देना ही होता है...लेकिन अगर सभी प्रेमी सिर्फ़ देंगे तो लेगा कौन?
नीरज

गरिमा July 15, 2008 at 1:46 PM  

शोभा जी आपने जो कहा युगो से लोग उसके जवाब की तलाश मे हैं, जवाब नही दे सकेंगे क्योंकि प्रेम ना अकेले शरीर से किया जा सकता है ना सिर्फ़ आत्मा से, जहाँ आत्मा और शरीर का मिलन यानि की जीवन है प्रेम उसी जीवन से किया जा सकता है, और जब जीवन है तो, इसके साथ कई और तत्व भी शामिल होते हैं, मसलन जरूरते, सुख दुख, चाहत इत्यादि, अगर जीवन से इन सबको निकाल दिया जाये तो भी जीवन का अस्त्तित्व नही है, प्रेम भी जीवन के इसी अस्तित्व मे शामिल है, अतः जहां तक मै समझती हुँ प्रेम भी इन तत्वो से अछुता कैसे रह सकता है, जब हम अपने घर मे एक पौधा लगाते है, फ़िर उसको हरा भरा देखकर प्रसन्न होते हैं, पौधे के सुख दुख मे हम बराबर के सहभागी होते हैं, यही तो प्रेम है, फ़िर उस पौधे पर आये पुष्प से कोई उपेक्षा कर लेना, क्या गलत है? हाँ उस पुष्प की खुशबु सिर्फ़ आपके आँगन को महकायें ऐसी सोच रखना गलत है... बस इतना सा ही अंतर है निर्विकार और स-विकार प्रेम मे।

Rajesh July 24, 2008 at 1:26 PM  

Prem - yah shabd itna vyapya hai ki uska koi ant nahi, wah anant hai aur uski koi paribhasha nahi hai, koi uska varnan nahi kar sakta, kahin prem mein swarth hota hai to kahin swarth mein prem bhi hota hai. Kuchh hadd tak main uper Rachna ji ke baat se sahmat hoon. कभी किसी को प्रेम सिर्फ़ प्रेम के लिये कर के देखे , अपनी सुख के नहीं उसके सुख की कामना करके देखे , आत्मिक सुख आप को खोजना नहीं पडेगा जिन्दगी मे जो संतुष्ट हैं वह सबसे भ्रमित हैं क्योकि उसको लगता हैं की बाकि सब अदुरे सिर्फ़ वही पूरा हैं अब गर आप पुरी हैं तो आप को किसी का भी साथ क्यों चाहेए !

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