मेरे अनुभव को अपनी प्रतिक्रिया से सजाएँ

त्योहारों का मौसम

>> Monday, October 20, 2008


लो आगया फिर से
त्योहारों का मौसम
उनके लूटने का
हमारे लुट जाने का मौसम


बाजारों में रौशनी
चकाचौंध करने लगी है
अकिंचनो की पीड़ा
फिर बढ़ने लगी है


धनी का उत्साह
और निर्धन की आह
सभी ढ़ूँढ़ रहे हैं
खुशियों की राह


व्यापारी की आँखों में
हज़ारों सपने हैं
ग्राहकों को लूटने के
सबके ढ़ग अपने हैं


कोई सेल के नाम पर
कोई उपहार के नाम पर
कोई धर्म के नाम पर
आकर्षण जाल बिछा रहा है
और बेचारा मध्यम वर्ग
उसमें कसमसा रहा है


उसका धर्म और आस्था
खर्च करने को उकसाते हैं
किन्तु जेब में हाथ डालें तो
आसूँ निकल आते हैं

सजी हुई दुकानें

और जगमगाते मकान

खुशियाँ फैलाते हैं.

जीवन में प्रेम भरा हो तो

गम पास नहीं आते हैं.

सादगी और सरलता से

त्योहारों को मनाओ

धन संम्पत्ति के बल पर

इन्हे दूषित ना बनाओ।


23 comments:

sumansourabh.blogspot.com October 20, 2008 at 4:26 PM  

सुंदर विचार

मीत October 20, 2008 at 4:33 PM  

bahut achi kavita hai shobha ji...

RADHIKA October 20, 2008 at 4:37 PM  

अच्छी कविता

रंजना October 20, 2008 at 4:43 PM  

धनी का उत्साह
और निर्धन की आह
सभी ढ़ूँढ़ रहे हैं
खुशियों की राह

seedhee sachchi baat kitni saralta sundarta se aapne kah di.man mugdh ho gaya.
bahut bahut sundar likha hai aapne.

रंजू भाटिया October 20, 2008 at 4:44 PM  

अच्छी है कविता सच्ची बात कहती है

Manuj Mehta October 20, 2008 at 4:51 PM  

बाजारों में रौशनी
चकाचौंध करने लगी है
अकिंचनो की पीड़ा
फिर बढ़ने लगी है



धनी का उत्साह
और निर्धन की आह
सभी ढ़ूँढ़ रहे हैं
खुशियों की राह

bahut hi sachhi baat shaobha ji, bahut hi sateek rachna

isey dooshit na banao. bahut achha

Smart Indian October 20, 2008 at 4:55 PM  

सही कहा आपने. उल्लास, संयम और भाईचारे की परम्परा अब सिर्फ़ फिजूलखर्ची और दिखावा ही रह गयी है.

makrand October 20, 2008 at 5:37 PM  

sunder rachana
regards

जितेन्द़ भगत October 20, 2008 at 5:41 PM  

बाजार के शि‍कंजे से बचना नामुमकि‍न होता जा रहा है, बहुत सुंदर ढ़ंग से आपने इसके चक्रव्‍यूह को समझाया है-
बाजारों में रौशनी
चकाचौंध करने लगी है
अकिंचनो की पीड़ा
फिर बढ़ने लगी है

डॉ .अनुराग October 20, 2008 at 6:42 PM  

त्यौहार मय हो गया मन

गगन शर्मा, कुछ अलग सा October 20, 2008 at 7:00 PM  

कभी-कभी जान बूझ कर भी लुटने में मजा आता है। इन त्योहारों की फ़ितरत ही ऐसी होती है।

हम जानते हैं 'सेल' की हकीकत,
पर दिल को खुश करने का ए मौका अच्छा है।
(चचा गालिब से क्षमा याचना के साथ।)

manvinder bhimber October 20, 2008 at 8:05 PM  

व्यापारी की आँखों में
हज़ारों सपने हैं
ग्राहकों को लूटने के
सबके ढ़ग अपने हैं
अच्छी कविता

महेन्द्र मिश्र October 20, 2008 at 9:28 PM  

उसका धर्म और आस्था
खर्च करने को उकसाते हैं
किन्तु जेब में हाथ डालें तो
आसूँ निकल आते हैं
Hamesha ki tarah achchi rachana .badhai apko.

राज भाटिय़ा October 20, 2008 at 11:45 PM  

धनी का उत्साह
और निर्धन की आह
सभी ढ़ूँढ़ रहे हैं
खुशियों की राह
बहुत ही सुन्दर ओर मन भावन कविता के लिये
धन्यवाद

Udan Tashtari October 21, 2008 at 6:34 AM  

बेहद सुन्दर..फॉन्ट कलर बदलिये कमेंट का.

श्रीकांत पाराशर October 21, 2008 at 9:45 AM  

Bazar ka varnan bhi kavita men itne achhe dhang se kiya ja sakta hai yah sabit kar diya aapne. Lootane aur lutane ka mousam bataya tyoharon ke mousam ko. bahut khoob.

seema gupta October 21, 2008 at 10:33 AM  

"bhut sunder abhevyktee"

regards

Mohinder56 October 21, 2008 at 11:34 AM  

सुन्दर भाव अभिव्यक्ति समेटे रचना.

समीर जी की बात पर ध्यान दें... कमेंट्स का फ़ोट कलर बदले...

Rajesh October 21, 2008 at 4:27 PM  

धनी का उत्साह
और निर्धन की आह
सभी ढ़ूँढ़ रहे हैं
खुशियों की राह
Festivals ke aane ke saath hi yah rookh dekhne ko milta hai zindagi ka. Dhani ho ya Nirdhan, sabhi apni takat ke dayare mein rah kar apni apni khusiyan khoj hi lete hai. Aakhir, tyoharon ki yahi to anand hai hamare Bharat des mein.

Anonymous October 28, 2008 at 4:37 PM  

happy dipawali
with your


positive lines




दीपावली नाम है
प्रकाश का
रौशनी का
खुशी का
उल्लास का
दीपावली पर्व है
उमंग का
प्यार का

Anonymous October 30, 2008 at 4:16 PM  

उसका धर्म और आस्था
खर्च करने को उकसाते हैं
किन्तु जेब में हाथ डालें तो
आसूँ निकल आते हैं ।

nice expression
Happy dipawali

अभिषेक मिश्र November 12, 2008 at 12:29 PM  

दीवाली पर हम खुशियाँ मनाते हैं
दीप जलाते नाचते गाते हैं
पर प्रतीकों को भूल जाते हैं ?
दीप जला कर अन्धकार भगाते हैं
किन्तु दिलों में -
नफरत की दीवार बनाते है
खूब लिखा है आपने. बधाई. स्वागत मेरे ब्लॉग पर भी.

Manuj Mehta December 18, 2008 at 10:03 AM  

बहुत खूब शोभा जी, बहुत ही सटीक शब्द और व्यंग से परिपूरन.
आपकी कलम निरंतर चलती रहे यही प्रार्थना है.

  © Blogger template Shiny by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP