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प्यास

>> Thursday, August 12, 2010

भँवरे को कलियों के खिलने की प्यास

कलियों को सूरज की किरणों की प्यास

सूरज को चाहें चाँद की किरणें

चन्दाके आने की सन्ध्या को आस


सन्ध्या को माँगा है तपती जमीं ने

किसने बुझाई है किसकी ये आस ?


गीतों ने चाहा है खुशियों का राग

खुशियों को अपनो से मिलने की आस

अपने भी जाएँ जो आँखों से दूर

मिलने की रहती है बेबस सी आस


प्यासी ज़मीं और प्यासा गगन है

प्यासी नदी और प्यासी पवन है

नहीं कोई हो पाता जीवन में पूरा

तमन्नाएँ कर देती सबको अधूरा


अतृप्ति मिटाती है ओठों से हास

सभी हैं अधूरे सभी को है प्यास


मगर जिनको मिलता है तेरा सहारा

उसी को मिला है यहाँ पर किनारा

ये भोगों की दुनिया उसे ना रूलाती

जगी जिसकी आँखों में ईश्वर की प्यास


चलो आज करलो जहाँ से किनारा

लगा लो लगन और पा लो किनारा

वो सत्-चित् आनन्द सबका सहारा

वहीं जाओ फिर पाओगे तुम किनारा


अतृप्ति रहेगी ना भोगों की प्यास

मिटा देगा वो तेरी जन्मों की प्यास

5 comments:

Patali-The-Village August 12, 2010 at 6:23 PM  

kavita achchhi lagi. dhanyawad.

Ra August 12, 2010 at 7:06 PM  

बहुत ही सुन्दर ,सरल शब्दों में लिखी हुई प्रेरणादायी रचना ...जीवन के सत्य को उजागर करती हुई ...बधाई स्वीकारे
अथाह...

राज भाटिय़ा August 13, 2010 at 1:00 AM  

बहुत ही सुंदर रचना धन्यवाद

मनोज कुमार August 14, 2010 at 9:11 AM  

सुंदर अभिव्यक्ति।

अनामिका की सदायें ...... August 16, 2010 at 10:41 PM  

सच में आखरी सहारा तो वही है...उस दर पर पहुँच कर सरे भटकाव खत्म हो जाते हैं.

बहुत सुंदर शब्दों के मोतियों से सजी आपकी रचना प्रेरणादायक है.

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